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Showing posts from December, 2022

॥ काशी विश्वनाथाष्टकम ॥

  गङ्गा तरङ्ग रमणीय जटा कलापं, गौरी निरन्तर विभूषित वाम भागं। नारायण प्रियमनङ्ग मदापहारं, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(१) वाचामगॊचरमनॆक गुण स्वरूपं, वागीश विष्णु सुर सॆवित पाद पद्मं। वामॆण विग्रह वरॆन कलत्रवन्तं, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(२) भूतादिपं भुजग भूषण भूषिताङ्गं, व्याघ्राञ्जिनां बरधरं, जटिलं, त्रिनॆत्रं। पाशाङ्कुशाभय वरप्रद शूलपाणिं, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(३) सीतांशु शॊभित किरीट विराजमानं, बालॆक्षणातल विशॊषित पञ्चबाणं। नागाधिपा रचित बासुर कर्ण पूरं, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(४) पञ्चाननं दुरित मत्त मतङ्गजानां, नागान्तकं धनुज पुङ्गव पन्नागानां। दावानलं मरण शॊक जराटवीनां, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(५) तॆजॊमयं सगुण निर्गुणमद्वितीयं, आनन्द कन्दमपराजित मप्रमॆयं। नागात्मकं सकल निष्कलमात्म रूपं, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(६) आशां विहाय परिहृत्य परश्य निन्दां, पापॆ रथिं च सुनिवार्य मनस्समाधौ। आधाय हृत्-कमल मध्य गतं परॆशं, वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम्॥(७) रागाधि दॊष रहितं स्वजनानुरागं, वैराग्य शान्ति निलयं गिरिजा सहायं। माधुर्य धैर्य सु

॥ अत्रि स्तुति ॥

  नमामि भक्त वत्सलं, कृपालु शील कोमलं। भजामि ते पदांबुजं, अकामिनां स्वधामदं॥ (१) भावार्थ : हे प्रभु! आप भक्तों को शरण देने वाले है, आप सभी पर कृपा करने वाले है, आप अत्यंत कोमल स्वभाव वाले है, मैं आपको नमन करता हूँ। हे प्रभु! आप कामना-रहित जीवों को अपना परम-धाम प्रदान करने वाले है, मैं आपके चरण कमलों का स्मरण करता हूँ। (१) निकाम श्याम सुंदरं, भवांबुनाथ मंदरं। प्रफुल्ल कंज लोचनं, मदादि दोष मोचनं॥ (२) भावार्थ : हे प्रभु! आप आसक्ति-रहित हैं, आप श्याम वर्ण में अति सुन्दर हैं, आप ब्रह्माण्ड को मंदराचल पर्वत के समान धारण किये हुए हैं। हे प्रभु! आपके नेत्र खिले हुए कमल के समान है, आप ही अभिमान आदि विकारों का नाश करने वाले हैं। (२) प्रलंब बाहु विक्रमं, प्रभोऽप्रमेय वैभवं। निषंग चाप सायकं, धरं त्रिलोक नायकं॥ () भावार्थ : हे प्रभु! आप लंबी भुजाओं वाले हैं, आपका पराक्रम और ऐश्वर्य कल्पना से परे हैं। हे प्रभु! आप धनुष-बाण और तुणींर (बाण रखने वाला तरकस) धारण करने वाले हैं, आप ही तीनों लोकों के स्वामी हैं। ( (३) दिनेश वंश मंडनं, महेश चाप खंडनं॥ मुनींद्र संत रंजनं,

॥ मधुराष्टकम् ॥

  अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरम्। हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥ भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥१॥ वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरम्। चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥ भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपका बोलना मधुर है, आपका चरित्र मधुर है, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपके वलय मधुर हैं, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥२॥ वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ। नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥ भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥३॥ गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं

॥ श्रीकृष्ण चालीसा ॥

  ॥ दोहा ॥ बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम। अरुण अधर जनु बिम्बफल, नयन कमल अभिराम॥ पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज। जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज॥ ॥ चौपाई ॥ जय यदुनंदन जय जगवंदन, जय वसुदेव देवकी नन्दन॥ (१) जय यशुदा सुत नन्द दुलारे, जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥ (२) जय नट-नागर नाग नथइया, कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया॥ (३) पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो, आओ दीनन कष्ट निवारो॥ (४) वंशी मधुर अधर धरि टेरौ, होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥ (५) आओ हरि पुनि माखन चाखो, आज लाज भक्तन की राखो॥ (६) गोल कपोल चिबुक अरुणारे, मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥ (७) रंजित राजिव नयन विशाला, मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥ (८) कुंडल श्रवण पीत पट आछे, कटि किंकिणी काछनी काछे॥ (९) नील जलज सुन्दर तनु सोहे, छबि लखि सुर नर मुनिमन मोहे॥ (१०) मस्तक तिलक अलक घुँघराले, आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥ (११) करि पय पान पूतनहि तार्‌यो, अका बका कागासुर मार्‌यो॥ (१२) मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला, भई शीतल लखतहिं नंदलाला॥ (१३) सुरपति जब ब्रज चढ़्‌यो रिसाई, मूसर धार वारि वर्षाई॥ (१४) लगत

॥ राधाकृष्णाष्टकम् ॥

  कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः। जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (१) भावार्थ : श्रीराधारानी, भगवान श्रीकृष्ण में रमण करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराधारानी में रमण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (१) कृष्णस्य द्रविणं राधा राधायाः द्रविणं हरिः। जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (२) भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण की पूर्ण-सम्पदा श्रीराधारानी हैं और श्रीराधारानी का पूर्ण-धन श्रीकृष्ण हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (२) कृष्णप्राणमयी राधा राधाप्राणमयो हरिः। जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (३) भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के प्राण श्रीराधारानी के हृदय में बसते हैं और श्रीराधारानी के प्राण भगवान श्री कृष्ण के हृदय में बसते हैं , इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (३) कृष्णद्रवामयी राधा राधाद्रवामयो हरिः। जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (४) भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के नाम से श्रीराधारानी प्रसन्न होती हैं और श्रीराध

॥ श्री गोविन्द-दामोदर स्तोत्रम् ॥

  करारविन्देन पदार्विन्दं, मुखार्विन्दे विनिवेशयन्तम्। वटस्य पत्रस्य पुटेशयानं, बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥ (१) श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव। जिव्हे पिबस्वा मृतमेव देव, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (२) विक्रेतुकामाखिल गोपकन्या, मुरारी पादार्पित चित्तवृतिः। दध्यादिकं मोहावशादवोचद्, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (३) गृहे-गृहे गोपवधू कदम्बा:, सर्वे मिलित्वा समवाप्ययोगम्। पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (४) सुखं शयाना निलये निजेऽपि, नामानि विष्णोः प्रवदन्तिमर्त्याः। ते निश्चितं तन्मयतमां व्रजन्ति, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (५) जिह्‍वे दैवं भज सुन्दराणि, नामानि कृष्णस्य मनोहाराणि। समस्त भक्तार्ति विनाशनानि, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (६) सुखावसाने इदमेव सारं, दुःखावसाने इदमेव ज्ञेयम्। देहावसाने इदमेव जाप्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (७) जिह्‍वे रसज्ञे मधुरप्रिया त्वं, सत्यं हितं त्वां परमं वदामि। आवर्णये त्वं मधुराक्षराणि, गोविन्द दामोदर माधवेति॥ (८) त्वामेव याचे मन देहि जिह्‍वे, समागते दण्डधरे कृतान्ते। वक्तव्यमेवं मधुरम सुभक्तया, गोविन्द दाम

॥ श्री नन्दकुमाराष्टकं ॥

  सुन्दर गोपालं उरवनमालं नयन विशालं दुःख हरं, वृन्दावन चन्द्रं आनंदकंदं परमानन्दं धरणिधरं। वल्लभ घनश्यामं पूरण कामं अत्यभिरामं प्रीतिकरं, भज नंद कुमारं सर्वसुख सारं तत्वविचारं ब्रह्मपरम॥ (१) सुन्दरवारिज वदनं निर्जितमदनं आनन्दसदनं मुकुटधरं, गुंजाकृतिहारं विपिनविहारं परमोदारं चीरहरम। वल्लभ पटपीतं कृतउपवीतं करनवनीतं विबुधवरं, भज नंद कुमारं सर्वसुख सारं तत्वविचारं ब्रह्मपरम॥ (२) शोभित मुख धूलं यमुना कूलं निपट अतूलं सुखदतरं, मुख मण्डित रेणुं चारित धेनुं बाजित वेणुं मधुर सुरम। वल्लभ अति विमलं शुभपदकमलं नखरुचि अमलं तिमिरहरं, भज नंद कुमारं सर्वसुख सारं तत्वविचारं ब्रह्मपरम॥ (३) शिर मुकुट सुदेशं कुंचित केशं नटवरवेशं कामवरं, मायाकृतमनुजं हलधर अनुजं प्रतिहदनुजं भारहरम। वल्लभ व्रजपालं सुभग सुचालं हित अनुकालं भाववरं, भज नंद कुमारं सर्वसुख सारं तत्वविचारं ब्रह्मपरम॥ (४) इन्दीवरभासं प्रकट्सुरासं कुसुमविकासं वंशीधरं, हृतमन्मथमानं रूपनिधानं कृतकलिगानं चित्तहरं। वल्लभ मृदुहासं कुंजनिवासं विविधविलासं केलिकरं, भज नंद कुमारं सर्वसुख सारं तत्वविचारं ब्रह्मपरम॥ (५) अति पर

॥ गोपी गीत ॥

  कस्तूरी तिलकं ललाट पटले वक्ष: स्थले कौस्तुभं। नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणु: करे कंकणं॥ भावार्थ:- हे श्रीकृष्ण! आपके मस्तक पर कस्तूरी तिलक सुशोभित है। आपके वक्ष पर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि विराजित है, आपने नाक में सुंदर मोती पहना हुआ है, आपके हाथ में बांसुरी है और कलाई में आपने कंगन धारण किया हुआ है। सर्वांगे हरि चन्दनं सुललितं कंठे च मुक्तावली। गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि:॥ भावार्थ:- हे हरि! आपकी सम्पूर्ण देह पर सुगन्धित चंदन लगा हुआ है और सुंदर कंठ मुक्ताहार से विभूषित है, आप सेवारत गोपियों के मुक्ति प्रदाता हैं, हे गोपाल! आप सर्व सौंदर्य पूर्ण हैं, आपकी जय हो। जयति तेऽधिकं जन्मना ब्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि। दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥ (१) भावार्थ:- हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ गयी है, तभी तो सौन्दर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोड़कर यहाँ की सेवा के लिये नित्य निरन्तर यहाँ निवास करने लगी हैं। हे प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपीयाँ जिन्होने तुम्हारे

॥ हनुमान चालीसा ॥

  ॥ दोहा ॥ श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि। बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥ बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन कुमार। बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस विकार॥ भावार्थ : मैं सदगुरु के चरण कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके, श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ जो (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी) चारों फलों को देने वाला है। मैं स्वयं को अज्ञानी और निर्बल जानकर, पवन-पुत्र श्री हनुमान जी का स्मरण करता हूँ जो मुझे बल, सद्‍बुद्धि और ज्ञान प्रदान करेंगे और मेरे दुखों व दोषों का नाश करेंगे। ॥ चौपाई ॥ जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥ (१) भावार्थ : हे हनुमान जी! आपकी जय हो, आप ज्ञान और गुण के सागर हैं, हे कपीश्वर! आपकी जय हो, आपका यश तीनों लोकों (स्वर्ग-लोक, पृथ्वी-लोक, पाताल-लोक) में फ़ैला हुआ है। (१) राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥ (२) भावार्थ : हे हनुमान जी! आप श्री राम जी के दूत हैं, आप अपार शक्ति के भण्डार है, आप माता अंजनि के पुत्र है और आप पवन देव के पुत्र नाम से जाने जाते हैं। (२) महावीर

॥ हनुमानाष्टकम् ॥

  बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो, ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो। देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो, को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥ (१) भावार्थ : हे हनुमान जी! आप जब बालक थे तब आपने सूर्य को निगल लिया था तब तीनो लोकों में अन्धकार छा जाने के कारण संसार विपत्ति में आ गया, इस संकट को कोई भी दूर नही कर सका। जब देवताओं ने आकर आपसे जब प्रार्थना की तब आपने सूर्य को मुक्त करके संकट दूर किया था, हे कपीश्वर! संसार में ऎसा कौन है जो आपको "संकटमोचन" नाम से नही जानता है। (१) बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो, चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो। कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो, को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥ (२) भावार्थ : हे हनुमान जी! जब अपने भाई बालि के डर से सुग्रीव पर्वत पर रहते थे तब उन्होने श्री रामचन्द्र जी को आते हुए देखकर आपको पता लगाने के लिये भेजा, क्योंकि मुनि के शाप के कारण आप प्रभु को पहचान नही सके तब आप सोच-विचार कर

॥ बजरंग बाण ॥

  ॥ दोहा ॥ निश्चय प्रेम प्रतीत ते, विनय करें सनमान । तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान॥ ॥ चौपाई ॥ जय हनुमन्त सन्त हितकारी, सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥ जन के काज विलम्ब न कीजै, आतुर दौरि महा सुख दीजै॥ जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा, सुरसा बदन पैठि विस्तारा॥ आगे जाई लंकिनी रोका, मारेहु लात गई सुर लोका॥ जाय विभीषण को सुख दीन्हा, सीता निरखि परम पद लीन्हा॥ बाग उजारी सिन्धु महँ बौरा, अति आतुर यम कातर तोरा॥ अक्षय कुमार को मारि संहारा, लूम लपेट लंक को जारा॥ लाह समान लंक जरि गई, जय जय धुनि सुरपुर महँ भई॥ अब विलम्ब केहि कारण स्वामी, कृपा करहु उर अन्तर्यामी॥ जय जय लखन प्राण के दाता, आतुर होय दुख हरहु निपाता॥ जय गिरिधर जय जय सुखसागर, सुर समूह समरथ भटनागर॥ ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले, बैरिहि मारु बज्र की कीले॥ गदा बज्र लै बैरिहिं मारो, महाराज प्रभु दास उबारो॥ ऊँकार हुँकार महाबीर धावो, बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो॥ ॐ हीं हीं हीं हनुमन्त कपीसा, ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर शीशा॥ सत्य होहु हरि शपथ पाय के, रामदूत धरु मारु जाय के॥ जय जय जय हनुमन्त अ

॥ रुद्राष्टकम् ॥

  नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं। निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥१॥ भावार्थ : स्वामी, ईश्वर, मोक्षस्वरुप, सर्वोपरि, सर्वव्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप श्रीशिव को नमस्कार है, आत्मस्वरुप में स्थित, गुणातीत, भेदरहित, इच्छारहित, चेतनरूपी आकाश के समान और आकाश में रहने वाले आपका मैं भजन करता हूँ॥१॥ निराकारमोंकारमूलं तुरीयं, गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं। करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥२॥ भावार्थ : निराकार, ओंकार के मूल, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे, वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, दयालु, गुणों के धाम, संसार से परे आपको सविनय नमस्कार है॥२॥ तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं। स्फुरंमौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥३॥ भावार्थ : हिमालय के समान गौरवर्ण, गंभीर, करोङों कामदेव के समान प्रकाशवान और सुन्दर शरीर वाले, जिनके सिर पर कलकल रूपी मधुर स्वर करने वाली सुन्दर गंगाजी शोभायमान हैं, जिनके मस्तक पर बालचन्द्र और गले में सर्प

॥ निर्वाण षष्टकं ॥

  मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं, न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे। न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥ (१) भावार्थ : मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ, न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ। (१) न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोशाः। न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू , चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥ (२) भावार्थ : न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ। (२) न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः। न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥ (३) भावार्थ : न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥

  जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले,गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्। डमड्डमड्ड्मड्ड्मन्निनादवड्ड्मर्वयं,चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव:शिवम्॥ (1) जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी, विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्ध्दनि। धगध्दगध्दगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके, किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम॥ (2) धराधरेन्द्ननन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर, स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे। कृपाकटाक्षधोरणीनिरुध्ददुर्धरापदि, क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥ (3) जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा, कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे। मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे, मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि॥ (4) सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर, प्रसूनधुलिधोरणीविधुसराङध्रिपीठभू:। भुजंगराजमा्लया निबध्दजाटजूटक:, श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर:॥ (5) ललाटचत्वरज्वलध्दनञ्ज्यस्फुलिंगभा, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम्। सुधामयुखलेखया विराजमान शेखरं, महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न:॥ (6) करालभाल्पट्टिकाधगध्दगध्दगज्ज्वल, ध्दनञ्ज्याहुतीकृतप्रचण्डपंचसायके। धराधरेन्द्ननन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक, प्रकल्पनैकशिल्प

॥ राधा चालीसा ॥

  ॥ दोहा ॥ श्री राधे वृषभानुजा, भक्तिन प्राणाधार। वृन्दाविपिन विहारिणी, प्रणवौं बारंबार॥ जैसो तैसो रावरौ, कृष्ण प्रिया सुखधाम। चरण शरण निज दीजिये, सुन्दर सुखद ललाम॥ ॥ चौपाई ॥ जय वृषभानु कुँवरि श्री श्यामा, कीरति नंदिनी शोभा धामा॥ (१) नित्य बिहारिनि श्याम अधारा, अमित मोद मंगल दातारा॥ (२) रास विलासिनि रस विस्तारिनि, सहचरि सुभग यूथ मन भावनि॥ (३) नित्य किशोरी राधा गोरी, श्याम प्राण धन अति जिय भोरी॥ (४) करुणा सागर हिय उमंगिनि, ललितादिक सखियन की संगिनी॥ (५) दिनकर कन्या कूल विहारिनि, कृष्ण प्राण प्रिय हिय हुलसावनि॥ (६) नित्य श्याम तुमरौ गुण गावैं, राधा राधा कहि हरषावैं॥ (७) मुरली में नित नाम उचारें, तुम कारण लीला वपु धारें॥ (८) प्रेम स्वरूपिणि अति सुकुमारी, श्याम प्रिया वृषभानु दुलारी॥ (९) नवल किशोरी अति छवि धामा, धुति लघु लगै कोटि रति कामा॥ (१०) गोरांगी शशि निंदक बदना, सुभग चपल अनियारे नयना॥ (११) जावक युत युग पंकज चरना, नुपूर धुनि प्रीतम मन हरना॥ (१२) संतत सहचरि सेवा करहीं, महा मोद मंगल मन भरहीं॥ (१३) रसिकन जीवन प्राण अधारा, राधा नाम सकल सुख सारा॥ (१

॥ यमुनाष्टकम् ॥

  (१) नमामि यमुनामहं सकल सिद्धि हेतुं मुदा, मुरारि पद पंकज स्फ़ुरदमन्द रेणुत्कटाम। तटस्थ नव कानन प्रकटमोद पुष्पाम्बुना, सुरासुरसुपूजित स्मरपितुः श्रियं बिभ्रतीम॥ (२) कलिन्द गिरि मस्तके पतदमन्दपूरोज्ज्वला, विलासगमनोल्लसत्प्रकटगण्ड्शैलोन्न्ता। सघोषगति दन्तुरा समधिरूढदोलोत्तमा, मुकुन्दरतिवर्द्धिनी जयति पद्मबन्धोः सुता॥ (३) भुवं भुवनपावनीमधिगतामनेकस्वनैः, प्रियाभिरिव सेवितां शुकमयूरहंसादिभिः। तरंगभुजकंकण प्रकटमुक्तिकावाकुका, नितन्बतटसुन्दरीं नमत कृष्ण्तुर्यप्रियाम॥ (४) अनन्तगुण भूषिते शिवविरंचिदेवस्तुते, घनाघननिभे सदा ध्रुवपराशराभीष्टदे। विशुद्ध मथुरातटे सकलगोपगोपीवृते, कृपाजलधिसंश्रिते मम मनः सुखं भावय॥ (५) यया चरणपद्मजा मुररिपोः प्रियं भावुका, समागमनतो भवत्सकलसिद्धिदा सेवताम। तया सह्शतामियात्कमलजा सपत्नीवय, हरिप्रियकलिन्दया मनसि मे सदा स्थीयताम॥ (६) नमोस्तु यमुने सदा तव चरित्र मत्यद्भुतं, न जातु यमयातना भवति ते पयः पानतः। यमोपि भगिनीसुतान कथमुहन्ति दुष्टानपि, प्रियो भवति सेवनात्तव हरेर्यथा गोपिकाः॥ (७) ममास्तु तव सन्निधौ तनुनवत्वमेतावता, न दुर्लभतमारतिर्मुररिपौ मुकुन्

॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

  मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी। व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१) भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१) अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले। वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२) भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृ

॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

  मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी। व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१) भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१) अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले। वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२) भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृ

॥ शिक्षाष्टकम् ॥

  चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्, श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् । आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्, सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥ भावार्थ : चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥ नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्ति, स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि, दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥ भावार्थ : हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी समय भी स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है॥२॥ तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥ भावार्थ : स्वयं को तृण से भी छोटा समझते हुए, वृक्ष जैसे सहिष्णु रहते हुए, कोई अभिमान न करते हुए और

॥ हस्तामलकं ॥

  प्रश्न ***** कस्त्वं शिशो कस्य कुतोऽसि गन्ता, किं नाम ते त्वं कुत आगतोऽसि। ऐतंमयोक्तम वद चार्भकत्वं, मत्प्रीतये प्रीतिविवर्धनोऽसि ॥१॥ भावार्थ : मेरी प्रीति को बढ़ाने वाले तुम कौन हो? किसके पुत्र हो? कहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा नाम क्या है? कहाँ से आए हो? हे बालक, मेरी प्रसन्नता के लिए, मुझे यह सब बताओ ॥१॥ उत्तर ****** नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ, न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः। न ब्रम्हचारी न गृही वनस्थो, भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः ॥२॥ भावार्थ : न मैं मनुष्य हूँ , न देवता अथवा यक्ष हूँ , न मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हूँ, न ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या सन्यासी हूँ , मैं केवल आत्मज्ञान स्वरुप हूँ ॥२॥ निमित्तं मनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ, निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः। रविर्लोक चेष्टानिमित्तं यथा यः, स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥३॥ भावार्थ : जिस प्रकार सूर्य इस संसार के सारे क्रिया - कलापों का कारण है, उसी प्रकार मन और चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों की चेष्टाओं का आधार परन्तु समस्त उपाधियों से आकाश के समान रहित, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप

॥ कृष्णाश्रय स्तुति ॥

  सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि। पाषण्डप्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिर्मम॥ (१) भावार्थ : हे प्रभु! कलियुग में धर्म के सभी रास्ते बन्द हो गए हैं, और दुष्ट लोग धर्माधिकारी बन गये हैं, संसार में पाखंड व्याप्त है, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (१) म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च। सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (२) भावार्थ : हे प्रभु! देश में दुष्ट लोगों का भय व्याप्त है और सभी लोग पाप कर्मों में लिप्त हैं, संसार में संत लोग अत्यन्त पीड़ित हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (२) गंगादितीर्थवर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह। तिरोहिताधिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (३) भावार्थ : हे प्रभु! गंगा आदि प्रमुख नदियों पर स्थित तीर्थों का भी दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने अतिक्रमण कर लिया हैं और सभी देवस्थान लुप्त होते जा रहें हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (३) अहंकारविमूढेषु सत्सु पापानुवर्तिषु। लोभपूजार्थयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (४) भावार्थ : हे प्रभु! अहंकार से ग्रसित होकर संतजन भी पाप-कर्म का अनुसरण कर रहे हैं और

॥श्री कृष्ण कृपा-कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

  भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं, स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम्। सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं, अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम्॥ (१) मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं, विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम्। करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं, महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्णावारणम्॥ (२) कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं, व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम्। यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया, युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम्॥ (३) सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं, दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम्। समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं, समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम्॥ (४) भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं, यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम्। दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं, दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम्॥ (५) गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं, सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनम्। नवीनगोपनागरं नवीनकेलिलम्पटं, नमामि मेघसुन्दरं तडित्प्रभालसत्पटम्॥ (६) समस्तगोपनन्दनं हृदम्बुजैकमोदनं, नमामि कुंजमध्यगं प्रसन्नभानुशोभनम्। निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं, रसालवेणुगायकं नमामि कुंजनायकम्॥ (७) विदग्धगोपिकामनोमनोज्ञत

॥ भज गोविन्दं ॥

  भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥ (१) भावार्थ : हे मोह से ग्रसित बुद्धि वालो! गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय अन्य किसी को याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है। (१) मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्, कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्। यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्, वित्तं तेन विनोदय चित्तं॥ (२) भावार्थ : हे मोहग्रस्त बुद्धि वालो! धन एकत्रित करने के लोभ को त्यागो, अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो, सत्य के मार्ग का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उसी से ही अपने मन को प्रसन्न रखो। (२) नारीस्तनभरनाभीदेशम्, दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्। एतन्मान्सवसादिविकारम्, मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥ (३) भावार्थ : स्त्री शरीर सौन्दर्य पर आसक्त होकर मोहग्रस्त न हो, अपने मन में इसका निरंतर स्मरण न करो, यह रक्त, मांस, मज्जा आदि के विकार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। (३) नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्। विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम्॥ (४) भावार्थ : य