Posts

Showing posts from December, 2024

मनसा चालीसा

  ॥ मनसा देवीजी का मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं एं मनसा दैव्ये स्वाहा॥ ॥ मनसा देवीजी की चालीसा-अमृतवाणी ॥ मनसा माँ नागेश्वरी, कष्ट हरन सुखधाम। चिंताग्रस्त हर जीव के, सिद्ध करो सब काम॥ देवी घट-घट वासिनी, ह्रदय तेरा विशाल। निष्ठावान हर भक्त पर, रहियो सदा तैयार॥ पदमावती भयमोचिनी अम्बा, सुख संजीवनी माँ जगदंबा। मनशा पूरक अमर अनंता, तुमको हर चिंतक की चिंता॥ कामधेनु सम कला तुम्हारी, तुम्ही हो शरणागत रखवाली। निज छाया में जिनको लेती, उनको रोगमुक्त कर देती॥ धनवैभव सुखशांति देना, व्यवसाय में उन्नति देना। तुम नागों की स्वामिनी माता, सारा जग तेरी महिमा गाता॥ महासिद्धा जगपाल भवानी, कष्ट निवारक माँ कल्याणी। याचना यही सांझ सवेरे, सुख संपदा मोह ना फेरे॥ परमानंद वरदायनी मैया, सिद्धि ज्योत सुखदायिनी मैया। दिव्य अनंत रत्नों की मालिक, आवागमन की महासंचालक॥ भाग्य रवि कर उदय हमारा, आस्तिक माता अपरंपारा। विद्यमान हो कण कण भीतर, बस जा साधक के मन भीतर॥ पापभक्षिणी शक्तिशाला, हरियो दुख का तिमिर ये काला। पथ के सब अवरोध हटाना, कर्म के योगी हमें बनाना॥ आत्मिक शांति दीजो मैया, ग्रह का भय हर लीजो मै...

अरण्यपर्व - अध्याय 134

  ॥ श्रीः ॥ 3.134. अध्यायः 134 Mahabharata - Vana Parva - Chapter Topics लोमशेन श्वेतकेतोराश्रमंगतं द्युधिष्ठिरंप्रति अष्टावक्रोपाख्यानकथधनारम्भः ॥ 1 ॥ धनार्जनाय जनकपुरं गतस्य कहोळस्य वन्दिना वादे विजित्य जले विनिमज्जनम् ॥ 2 ॥ तद्विदितवता तत्पुत्रेणाष्टावक्रेण श्वेतकेतुनासह जनकनगरंप्रति गमनम् ॥ 3 ॥ Mahabharata - Vana Parva - Chapter Text 3-134-0 (21009) लोमश उवाच। 3-134-0x (2144) यः कथ्यते मन्त्रविदग्र्यबुद्धि- रौद्दालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम्। तस्याश्रमं पश्यत पाण्डवेया सदाफलैरुपपन्नं महीजैः ॥ 3-134-1 (21010) साक्षादत्र श्वेतकेतुर्ददर्श सरस्वतीं मानुषदेहरूपाम्। वेत्स्यामि वाणीमिति संप्रवृत्तां सरस्वतीं श्वेतकेतुर्बभाषे ॥ 3-134-2 (21011) अस्मिन्युगे ब्रह्मकृतां वरिष्ठा- वास्तां मुनी मातुलभागिनेयौ। अष्टावक्रश्चैव कहोलसूनु- रौद्दालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम् ॥ 3-134-3 (21012) विदेहराजस् समीपतस्तौ घीरावुभौ मातुलभागिनेयौ। प्रविश्य यज्ञायतनं विवादे वन्दिं निजग्राहतुरप्रमेयौ ॥ 3-134-4 (21013) उपास्स्व कौन्तेय सहानुजस्त्वं तस्याश्रमं पुण्यतमं प्रविश्य। अष्ट...

श्री भैरव चालीसा

  दोहा श्री गणपति गुरु गौरि पद प्रेम सहित धरि माथ । चालीसा वन्दन करौं श्री शिव भैरवनाथ ॥ श्री भैरव संकट हरण मंगल करण कृपाल । श्याम वरण विकराल वपु लोचन लाल विशाल ॥ जय जय श्री काली के लाला । जयति जयति काशी-कुतवाला ॥ जयति बटुक-भैरव भय हारी । जयति काल-भैरव बलकारी ॥ जयति नाथ-भैरव विख्याता । जयति सर्व-भैरव सुखदाता ॥ भैरव रूप कियो शिव धारण । भव के भार उतारण कारण ॥ भैरव रव सुनि ह्वै भय दूरी । सब विधि होय कामना पूरी ॥ शेष महेश आदि गुण गायो । काशी-कोतवाल कहलायो ॥ जटा जूट शिर चंद्र विराजत । बाला मुकुट बिजायठ साजत ॥ कटि करधनी घूँघरू बाजत । दर्शन करत सकल भय भाजत ॥ जीवन दान दास को दीन्ह्यो । कीन्ह्यो कृपा नाथ तब चीन्ह्यो ॥ वसि रसना बनि सारद-काली । दीन्ह्यो वर राख्यो मम लाली ॥ धन्य धन्य भैरव भय भंजन । जय मनरंजन खल दल भंजन ॥ कर त्रिशूल डमरू शुचि कोड़ा । कृपा कटाक्श सुयश नहिं थोडा ॥ जो भैरव निर्भय गुण गावत । अष्टसिद्धि नव निधि फल पावत ॥ रूप विशाल कठिन दुख मोचन । क्रोध कराल लाल दुहुँ लोचन ॥ अगणित भूत प्रेत संग डोलत । बं बं बं शिव बं बं बोलत ॥ रुद्रकाय काली के लाला । महा कालहू के हो ...

अरण्यपर्व - अध्याय 133

  ॥ श्रीः ॥ 3.133. अध्यायः 133 Mahabharata - Vana Parva - Chapter Topics शिबिपरी7णार्थं श्येनीभूतेनेन्द्रेणानुद्रुतस्य कपोतरूपधारिणोऽग्नेः शिविंप्रति शरणागतिः ॥ 1 ॥ कपोतरिरक्षिषया राज्ञा श्येनानुमत्या स्वशरीरोत्कृत्तमांसस्य कपोतेन सह तुलारोपणम् ॥ 2 ॥ मांसापेक्षया कपोतस्य गौरवातिरेके राज्ञा स्वयमेव तुलारोहणम् ॥ 3 ॥ ततस्तुष्टाभ्यामिन्द्राग्निभ्यां तत्प्रशंसनपूर्वकं स्वलोकगमनम् ॥ 4 ॥ Mahabharata - Vana Parva - Chapter Text 3-133-0 (20972) श्येन उवाच। 3-133-0x (2134) धर्मात्मानं त्वाहुरेकं सर्वे राजन्महीक्षितः। स वै धर्मविरुद्धं त्वं कस्मात्कर्म चिकीर्षसि ॥ 3-133-1 (20973) विहितं भक्षणं राजन्पीड्यमानस्य मे क्षुधा। माहिंसीर्धर्मलोभेन धर्ममुत्सृज्य मा नशः ॥ 3-133-2 (20974) राजोवाच। 3-133-3x (2135) संत्रस्तरूपस्त्राणार्थी त्वत्तो भीतो महाद्विज। मत्सकाशमनुप्रप्तः प्राणगृध्नुरयं द्विजः ॥ 3-133-3 (20975) एवमभ्यागतस्येह कपोतस्याभयार्थिनः। अप्रदाने परो धर्मः किं त्वं श्येनेह पश्यसि ॥ 3-133-4 (20976) प्रस्पन्दमानः संभ्रान्तः कपोतः श्येन लक्ष्यते। मत्सकाशं जीवितार्थी ...

श्रीभक्तमाल श्रीनाभागोस्वामीकृत

  भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक । इनके पद बंदन किए नासहिं बिघ्न अनेक ॥ १॥ मंगल आदि बिचारि रह बस्तु न और अनूप । हरिजन के जस गावते हरिजन मंगलरूप ॥ २॥ संतन निर्नय कियो मथि श्रुति पुरान इतिहास । भजिबे को दोई सुघर कै हरि कै हरिदास ॥ ३॥ (श्री)अग्रदेव आज्ञा दई भक्तन के जस गाउ । भवसागर के तरन को नाहिन और उपाउ ॥ ४॥ चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री)अग्रदास उर पद धरौ ॥ जय जय मीन बराह कमठ नरहरि बलि बावन । परशुराम रघुबीर कृष्ण कीरति जगपावन ॥ बुद्ध कलक्की ब्यास पृथू हरि हँस मन्वंतर । जग्य ऋषभ हयग्रीव ध्रुव बरदेन धन्वन्तर ॥ बदरीपति दत कपिलदेव सनकादिक करुणा करौ । चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री)अग्रदास उर पद धरौ ॥ ५॥ चरन चिन्ह रघुबीर के संतन सदा सहायका ॥ अंकुश अंबर कुलिश कमल जव ध्वजा धेनुपद । शंख चक्र स्वस्तीक जम्बुफल कलस सुधाह्रद ॥ अर्धचंद्र षटकोन मीन बिँदु ऊरधरेषा । अष्टकोन त्रयकोन इंद्र धनु पुरुष बिशेषा ॥ सीतापतिपद नित बसत एते मंगलदायका । चरन चिन्ह रघुबीर के संतन सदा सहायका ॥ ६॥ इनकी कृपा और पुनि समुझे द्वादस भक्त प्रधान ॥ बिधि नारद शंकर सनकादिक कपिलदेव मनु भूप । नरहरिदास जनक भीषम बलि...

श्री बजरंग बाण

  दोहा - निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान । तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान ॥ चौपाई - जय हनुमंत संत हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ॥ जन के काज बिलंब न कीजै । आतुर दौरि महा सुख दीजै ॥ जैसे कूदि सिंधु महिपारा । सुरसा बदन पैठि बिस्तारा ॥ आगे जाय लंकिनी रोका । मारेहु लात गई सुरलोका ॥ जाय बिभीषन को सुख दीन्हा । सीता निरखि परमपद लीन्हा ॥ बाग उजारि सिंधु महँ बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा ॥ अक्षय कुमार मारि संहारा । लूम लपेटि लंक को जारा ॥ लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर नभ भई ॥ अब बिलंब केहि कारन स्वामी । कृपा करहु उर अंतरयामी ॥ जय जय लखन प्रान के दाता । आतुर ह्वै दुख करहु निपाता ॥ जै हनुमान जयति बलसागर । सुर समूह समरथ भटनागर ॥ ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले । बैरिहि मारू बज्र की कीले ॥ गदा बज्र लै बैरिहिं मारो । महाराज प्रभु दास उबारो ॥ ॐकार हुंकार महाप्रभु धावो । बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ॥ ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीशा । ॐ हुं हुं हुं हनु अरिउरसीशा ॥ सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै । राम दूत धरू मारू धाइ कै ॥ जय जय जय हनुमंत अगाधा । दुख पावत जन केहि ...

गोस्वामी तुलसीदास कृत दोहावली

  ॥ राम ॥ ॥ श्री हनुमते नमः ॥ दो० श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥ बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन-कुमार। बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥ चौपाई जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥ राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥ महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी ॥ कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा ॥ हाथ बज्र और ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥ संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन ॥ बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर ॥ प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया ॥ सूक्ष्म रुप धरि सियहि दिखावा। बिकट रुप धरि लंक जरावा ॥ भीम रुप धरि असुर सँहारे। रामचन्द्र के काज सँवारे ॥ लाय संजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥ रघुपति कीन्ही बहुत बडाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥ सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥ सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा ॥ जम कुबेर दिगपाल ...